🌼 प्रह्लाद की भक्ति और नरसिंह अवतार – बाल भक्ति की अमर गाथा 🌼


प्राचीन काल की यह कथा भक्तों के लिए श्रद्धा, विश्वास और ईश्वर की कृपा की सबसे अद्भुत मिसाल है। 

यह कहानी है एक बालक की — प्रह्लाद की, जो असुरों के राजा हिरण्यकश्यप का पुत्र था। 

लेकिन उसका मन जन्म से ही भगवद्भक्ति में रमा हुआ था। जहाँ पिता अपने अहंकार में स्वयं को 

भगवान कहने लगा था, वहीं उसका पुत्र अपने हृदय में भगवान विष्णु को ही सर्वश्रेष्ठ मानता था।

हिरण्यकश्यप ने कठिन तप कर ब्रह्मा जी से वरदान पाया था कि न वह दिन में मरेगा, न रात में; न मनुष्य से, 

न पशु से; न धरती पर, न आकाश में; न किसी अस्त्र से, न शस्त्र से। इस वरदान ने उसे अभिमानी 

और अत्याचारी बना दिया। वह चाहता था कि पूरा संसार उसकी पूजा करे — यहां तक कि उसका पुत्र प्रह्लाद भी।

लेकिन प्रह्लाद तो बचपन से ही भगवान विष्णु की भक्ति में लीन था। 

उसकी जिह्वा पर हर क्षण “नारायण-नारायण” का नाम रहता। 

पिता का आदेश, क्रोध, भय – कुछ भी उस निष्कलंक बालक के विश्वास को डिगा नहीं सका।

हिरण्यकश्यप ने उसे कई प्रकार से डराया, धमकाया और यातनाएं दीं। कभी उसे विष दिया गया, 

कभी ऊँचे पर्वत से गिराया गया, तो कभी हाथियों के पैरों तले कुचलवाने की कोशिश की गई। 

लेकिन हर बार, भगवान विष्णु की कृपा से प्रह्लाद सुरक्षित रहा। प्रह्लाद का विश्वास अडिग था – "प्रभु हर जगह हैं।"

जब हिरण्यकश्यप ने क्रोधित होकर पूछा – "कहाँ है तेरा विष्णु?" 

प्रह्लाद ने शांत स्वर में उत्तर दिया – "वह कण-कण में हैं, हर दिशा में हैं – इस स्तंभ में भी।"

हिरण्यकश्यप ने क्रोध में आकर स्तंभ पर प्रहार किया, और वही क्षण था जब भगवान ने नरसिंह अवतार लिया – 

न मानव, न पशु; आधे सिंह, आधे पुरुष। संध्या का समय था – न दिन, न रात। 

उन्होंने हिरण्यकश्यप को राजसभा के द्वार पर अपनी जांघों पर रखकर, नाखूनों से चीर दिया – न अस्त्र, न शस्त्र।

इस प्रकार भगवान ने प्रह्लाद की भक्ति की लाज रखी और अपने भक्त को सम्मानित किया। 

उस दिन यह सिद्ध हो गया कि सच्चे मन से की गई भक्ति को स्वयं ईश्वर भी झुककर स्वीकारते हैं।

नरसिंह भगवान की ज्वलंत प्रतिमा को देखकर सब भयभीत थे, लेकिन वही रौद्र रूप 

जब छोटे प्रह्लाद के सामने आया, तो वह सौम्य हो गया। जैसे कोई पिता अपने पुत्र को देखकर शांत होता है।

प्रह्लाद ने भगवान को शांत किया और उनसे कुछ नहीं माँगा। कहा – "हे प्रभु! आपने मुझे सब कुछ दिया, 

अब और कुछ नहीं चाहिए। बस इतना आशीर्वाद दीजिए कि मेरी भक्ति अडिग बनी रहे।"

यह कथा हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति में ना आयु बाधा बनती है, ना परिस्थिति। 

एक बालक की निष्कलंक श्रद्धा, उसकी निर्दोष आत्मा, और उसका विश्वास – यही थे उसके सबसे बड़े शस्त्र।


👉 यह कथा क्यों विशेष है?

यह बाल भक्ति की पराकाष्ठा है।

यह बताती है कि ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा स्वयं करते हैं

यह प्रेरणा देती है कि भक्ति डर से नहीं, प्रेम से होनी चाहिए




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