🌸 भरत मिलाप – त्याग, प्रेम और धर्म की अमर गाथा 🌸

रामायण की सबसे हृदयस्पर्शी घटनाओं में से एक है – भरत मिलाप। यह केवल दो भाइयों का मिलन नहीं 

बल्कि त्याग, धर्म, भक्ति और मर्यादा का ऐसा अद्भुत दृश्य है, जो सदियों से जन-जन की आंखों को नम करता आया है।

जब श्रीराम को अयोध्या से वनवास मिला, तो भरत उस समय अपनी ननिहाल केकय देश में थे। 

जब वे लौटे और उन्हें ज्ञात हुआ कि माता कैकयी के कारण उनके बड़े भ्राता श्रीराम को चौदह वर्षों का वनवास मिला 

और उनके पिता महाराज दशरथ इस दुःख को सहन न कर पाने के कारण शरीर त्याग चुके – तो भरत का ह्रदय फट पड़ा।

उन्होंने माँ कैकयी को कठोर शब्दों में धिक्कारा – "माँ! आपने राज नहीं, मेरा सर्वस्व छीना है। 

राम मेरे लिए केवल भ्राता नहीं, वे मेरे आराध्य हैं। आपने मुझे अपराधी बना दिया है!"

🌿 भरत का वनगमन

भरत ने राजगद्दी को छूने से भी इनकार कर दिया। उन्होंने मंत्रियों, गुरुओं और माताओं के साथ विशाल 

अयोध्यावासी दल सहित राम को ढूँढने के लिए वन की ओर प्रस्थान किया। वे श्रीराम से केवल एक ही प्रार्थना करना चाहते थे – 

"भैया! आप अयोध्या लौट चलिए, और राज्य संभालिए। मैं आपके बिना अयोध्या की कल्पना भी नहीं कर सकता।"

इस भक्ति, प्रेम और कर्तव्य की भावना से प्रेरित भरत, श्रीराम की खोज करते हुए चित्रकूट पहुंचे।

🌺 चित्रकूट में भरत मिलाप

जब श्रीराम को सूचना मिली कि भरत उनसे मिलने आ रहे हैं, तो वे लक्ष्मण और सीता के साथ उन्हें स्वागत के लिए खड़े हो गए। 

चित्रकूट का वह दृश्य, जब दोनों भाई – श्रीराम और भरत – एक-दूसरे को देखकर दौड़ पड़े, और भरत ने चरणों में गिरकर रोते हुए कहा:

"भैया! मुझे दोष मत दीजिए, यह सब मेरी माँ की करनी है। मुझे राज्य नहीं चाहिए, मुझे तो केवल आपका सानिध्य चाहिए।"

यह देखकर श्रीराम भी व्याकुल हो उठे। उन्होंने भरत को गले से लगाया, आँसू बहाए और कहा:

"भरत! मुझे तुमसे कोई क्रोध नहीं है। मुझे तुम्हारा धर्म, त्याग और प्रेम देखकर गर्व होता है। 

परंतु पिताजी की आज्ञा और वचन की मर्यादा मुझे रोक रही है।

🌙 भरत की चरणपादुका

जब श्रीराम किसी भी स्थिति में वापस अयोध्या लौटने को राजी नहीं हुए, 

तब भरत ने उनसे आग्रह किया कि "भैया! मुझे आपकी चरणपादुका दे दीजिए। 

मैं उसे अयोध्या की राजगद्दी पर स्थापित करूंगा और चौदह वर्षों तक केवल 

आपके प्रतिनिधि के रूप में नंगे पाँव, वनवासी की भांति जीवन व्यतीत करूंगा।"

श्रीराम ने चरणपादुका दी, और भरत ने उसे सिर पर धारण कर अयोध्या लौटने का निश्चय किया।

🕉️ भरत का त्यागमय जीवन

भरत ने अयोध्या लौटकर नन्दिग्राम में कुटिया बनाकर वनवासी के समान जीवन जीना शुरू किया। 

वे राजमहल में नहीं रहे, रेशमी वस्त्र नहीं पहने, सुख-सुविधाओं को त्याग दिया। 

वे नंगे पाँव रहते, कंद-मूल फल खाते, और श्रीराम के लौटने तक केवल प्रतीक्षा करते रहे।

उनकी सेवा, प्रतीक्षा, तपस्या और मर्यादा की यह साधना एक तपस्वी से भी बढ़कर थी।


👉 भरत मिलाप हमें क्या सिखाता है?


सच्चा प्रेम वही है जिसमें स्वार्थ न हो।

धर्म का पालन केवल शास्त्रों से नहीं, हृदय से होता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जैसे भाई के लिए भरत का त्याग अतुलनीय है।

राज नहीं, राम के चरणों की धूल ही सर्वोच्च है।


यह केवल कथा नहीं, भक्ति का सागर है।


भरत मिलाप का यह प्रसंग, मानवता को सिखाता है 

कि सच्चा भक्त वही है जो प्रभु के बिना स्वयं को अधूरा समझे।


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