🌺 सुंदरकांड प्रारंभिक मंगलाचरण अर्थ सहित 🌺


🔆 श्लोक 1:

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं,
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं,
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्।।

📜 अर्थ:


जो भगवान श्रीराम शान्त, शाश्वत, अपरिमेय, निष्पाप, मोक्षदायक, 

ब्रह्मा–शंकर और शेषनाग द्वारा निरंतर सेवित हैं, वेदांत द्वारा जानने योग्य हैं, 

माया से मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं, दीनों पर कृपा करने वाले हैं, 

और रघुकुल के शिरोमणि तथा समस्त पृथ्वी के अधिपति हैं — उन श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ।


🔆 श्लोक 2:

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च।।

📜 अर्थ:
हे रघुपति श्रीराम! मेरे हृदय में आपके सिवा कोई अन्य इच्छा नहीं है। मैं सत्य कहता हूँ 

कि आप समस्त प्राणियों के अंतर्यामी हैं। मुझे ऐसी अखंड, अटल भक्ति दीजिए 

जो केवल आपके प्रति हो और मेरे मन को समस्त कामादि दोषों से रहित कीजिए।


🔆 श्लोक 3:

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि।।

📜 अर्थ:
मैं श्रीहनुमान को नमस्कार करता हूँ जो अतुल बल के भंडार हैं, जिनका शरीर सोने के पर्वत के समान है, 

जो राक्षसों के लिए अग्नि स्वरूप हैं, ज्ञानियों में अग्रगण्य हैं, 

समस्त गुणों के खजाने हैं, वानरों के स्वामी हैं और श्रीरघुपति के अत्यंत प्रिय भक्त हैं।

🔰 श्री सुंदरकांड प्रारंभ:

जामवंत के बचन सुहाए।
सुनि हनुमंत हृदय अति भाए।।

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई।
सहि दुख कंद मूल फल खाई।।

जब लगि आवौं सीतहि देखी।
होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी।।

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।
चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा।।


🌊 समुद्र लांघने की तैयारी:

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर।
कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर।।

बार बार रघुबीर सँभारी।
तरकेउ पवनतनय बल भारी।।

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता।।

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना।।


🐍 सुरसा एवं मायावी राक्षसी प्रसंग

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी।।

🔹 दोहा:
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम।।1।।

जात पवनसुत देवन्ह देखा।
जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा।।

सुरसा नाम अहिन्ह कै माता।
पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता।।

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।
सुनत बचन कह पवनकुमारा।।

राम काजु करि फिरि मैं आवौं।
सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं।।

तब तव बदन पैठिहउँ आई।
सत्य कहउँ मोहि जान दे माई।।

कबनेहुँ जतन देइ नहिं जाना।
ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना।।

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा।
कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा।।

सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ।
तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ।।

जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा।
तासु दून कपि रूप देखावा।।

सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा।
अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा।।

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा।
मागा बिदा ताहि सिरु नावा।।

मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा।
बुधि बल मरमु तोर मै पावा।।

🔹 दोहा:
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देह गई सो हरषि चलेउ हनुमान।।2।।


👹 मायावी राक्षसी का वध

निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई।
करि माया नभु के खग गहई।।

जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं।
जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं।।

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई।
एहि बिधि सदा गगनचर खाई।।

सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा।
तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा।।

ताहि मारि मारुतसुत बीरा।
बारिधि पार गयउ मतिधीरा।।


🌺 लंका-दर्शन और प्रवेश

तहाँ जाइ देखी बन सोभा।
गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।

नाना तरु फल फूल सुहाए।
खग मृग बृंद देखि मन भाए।।

सैल बिसाल देखि एक आगें।
ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें।।

उमा न कछु कपि कै अधिकाई।
प्रभु प्रताप जो कालहि खाई।।

गिरि पर चढि लंका तेहिं देखी।
कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी।।

अति उतंग जलनिधि चहु पासा।
कनक कोट कर परम प्रकासा।।

🔹 छंद:
कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना।।

गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथिन्ह को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै।।1।।

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं।।

कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहु बिधि एक एकन्ह तर्जहीं।।2।।

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानषु धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं।।

एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही।।3।।

🔹 दोहा:
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरौं निसि नगर करौं पइसार।।3।।

🏰 लंका में प्रवेश और लंकिनी वध

मसक समान रूप कपि धरी।
लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।

नाम लंकिनी एक निसिचरी।
सो कह चलेसि मोहि निंदरी।।

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।
मोर अहार जहाँ लगि चोरा।।

मुठिका एक महा कपि हनी।
रुधिर बमत धरनीं ढनमनी।।

पुनि संभारि उठि सो लंका।
जोरि पानि कर बिनय संसका।।

जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।
चलत बिरंचि कहा मोहि चीन्हा।।

बिकल होसि तैं कपि कें मारे।
तब जानेसु निसिचर संघारे।।

तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता।।

🔹 दोहा
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग।।४।।


प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।
हृदयँ राखि कौसलपुर राजा।।

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई।।

गरुड़ सुमेरु रेनू सम ताही।
राम कृपा करि चितवा जाही।।

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।
पैठा नगर सुमिरि भगवाना।।

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।
देखे जहँ तहँ अगनित जोधा।।

गयउ दसानन मंदिर माहीं।
अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं।।

सयन किए देखा कपि तेही।
मंदिर महुँ न दीखि बैदेही।।

भवन एक पुनि दीख सुहावा।
हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा।।

🔹 दोहा
रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरषि कपिराइ।।५।।


🙏 विभीषण से भेंट

लंका निसिचर निकर निवासा।
इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा।।

मन महुँ तरक करै कपि लागा।
तेहीं समय बिभीषनु जागा।।

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।
हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा।।

एहि सन हठि करिहउँ पहिचानी।
साधु ते होइ न कारज हानी।।

बिप्र रुप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषण उठि तहँ आए।।

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई।।

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई।।

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी।।

🔹 दोहा
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम।।६।।


🌼 विभीषण का समर्पण भाव

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी।।

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा।।

तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं।।

अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।।

जौ रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा।।

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती।।

कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।

प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा।।

🔹 दोहा
    अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
          कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर।।७।।


🕉️ श्रीराम की मुद्रित अंगूठी

हरषि कपि मन देखि सिय जाना।
चरन गहे बोलेउ प्रमाना।।

जय जय तिहुँ लोक पति स्वामी।
राम दूत मैं मातु निष्कामी।।

सुनत सिय सजीवन पाई।
मुख प्रसन्न तन पुलक सुभाई।।

कपि के बचन सुमंगल मूला।
सुनि हरषीं मन उपजा सूला।।

कपि कहा सुनु जनक सुता प्यारी।
राम चरन रति तोहि भारी।।

सोइ तव मन रहस्य न जाना।
तासु हेतु मैं आइहूं आना।।


💍 अंगूठी प्रदान

कपि कहा सुनु मातु बिचारी।
राम भेंट यह मुद्रिका तारी।।

हेरत अंगुलि मुद्रिका पाई।
हरषि लखन जसु मन समाई।।

कहत सनेह बचन बहु भाँती।
हरषि सुमिरि रघुनायक भ्राँती।।

दोहा –
राम नाम अंकित मुद्रिका देखि जानि बिस्वास।
कपि प्रति कीन्ह प्रीति सिय, हरषि हृदय विकास।।


🌷 सीता माता की श्रद्धा और पीड़ा

कहत सनेह सिय कर कंजोरी।
जनकसु सुत कर संताप होरी।।

जासु हेतु तजि राजबिभूती।
संग बन बसि कीन्हीं बहु दूती।।

सोइ प्रभु निसिचर निकर बसाई।
बात सुनाय हृदय दुखदाई।।

कह कपि सुनु जनकसु माता।
सो प्रभु आइहिं लंकापुरी गाता।।

बिनु रघुबीर कहां मन मोरा।
भानुकुल भानु दयामय तोरा।।


💬 श्रीराम का संदेश

कह कपि सिय तव दुख सुहाया।
राम हृदय तें बिसरि न जाया।।

धीरज धरहु करहु अब बिचारू।
तुरत राम अइहहिं लेहु उबारू।।

बोलि सीता सुनी कपि बानी।
हरषि जनकसु मन बिस्मय जानी।।

तात प्राण सम राम कृपाला।
सकल सुकृत फल भंजन माला।।

दोहा –
कपि के बचन सुनि सीय मन, उपजा एक बिचार।
कंचन चूड़ामणि उतारि दीन्ह कपि कर तार।।


💠 चूड़ामणि देना और विश्वास

सीय दीन्ह कपि करि बिनय बहोरी।
हरि प्रताप बल सील नमोरी।।

कहहु तात प्रभु सन करि माया।
सीता तजि जीवन धरि छाया।।

चूड़ामणि राखहु मन लाई।
जायहु तात कहहु रघुराई।।

सुनु सिय सत्य असि सपथ करौं मैं।
नातिहि चूड़ामणि न धरौं मैं।।

🪷 अशोक वाटिका में हनुमान जी का क्रोध

कपि तब चरन परेउ सिरु नाई।
सीता सनेह बहुत मन लाई।।

राम काजु सब भाँति सवारी।
फिरि कपि मन भया बिचारी।।

देखि बिपिन बिचित्र बन रचना।
कपि करि लीला सब विधि भचना।।

नाना बिटप लता गुल्म भारी।
भंजन लग्यो हनूमान बल भारी।।


🧿 राक्षसों का विनाश

उपवन उजारि मचायो डंका।
राक्षस हाहाकार करंका।।

सैन्य समेत द्वार रजनीचर।
धाय धाय गिरे कपि खर खर।।

सुनि गर्जा कपि भुज उठाई।
कूदि मारत चला दुशमाई।।

तेहि अवसर सबहि रजनीचर।
मूर्च्छित भए कपि कहुँ डर।।


🪓 अक्षय कुमार वध

रावन पठए पुत्र बलवाना।
अक्षय नाम असुर कुल नाना।।

मुष्टि प्रहार कपि कीन्ह घमासा।
भू पर गिरा वह रुधिर बहासा।।

मरेउ रुधिर सुत असुर समाजा।
लाज राखि रावन नय बाजा।।


🔥 मेघनाद द्वारा बंदी बनना

अब रावन पठए इंद्रजाला।
मेघनाद नाम बल बाला।।

ब्रह्मास्त्र कपि बाँधत काढा।
हनुमान मन ब्रह्मशक्ति आधा।।

बिनु कारण प्रभु आज्ञा नाहीं।
बंध मान्यो कपि लाज निबाही।।

बंधि चलेउ नगर दिखाई।
रावण समीप लंका लवाई।।


🧿 रावण से संवाद

रावन बैठा सभा सुभाई।
हनुमान चल्यो गदगदाई।।

बोल्यो रावन क्रोध बस आई।
कपि नास करुं करुँ निपाई।।

कह कपि राम काज कारन आई।
सीता बिनु लखन रघुराई।।

राम बिनु दीन्हि सीता प्यारी।
होइहि लंका राख निहारी।।


🔥 पूंछ में आग लगाना

रावन आज्ञा दीन्ह रजनीचर।
कपि पूँछि ते धरेउ अति जर।।

नगर घुमायो पूँछि जलाइ।
लंका जलाइ हनुमत भलाई।।

राम नाम जपि चला कपि भारी।
सीता संदेशु हरषि उर धारी।।

दोहा –
लंकाजलाय रावनहि दीन्हि नीति उपदेस।
सीता सुधि कपि हृदय धरि चलेउ राम पग लेस।।

🪷 सीता जी का संदेश लेकर लौटना

सीता चरन सिरीस परि बरसा।
बोलि मधुर मन कर दुख हरसा।।

रामहि कहहु रामानन्दना।
कपि सुत तोहि करेउ परि दाना।।

कहेहु राम दुखी मन माहीं।
प्रेम बंध बिनु बंधी न जाहीं।।

कहेहु लखनहि कहीं सनेहू।
भाई बिनु दुख नाहीं गेहू।।


🌅 हनुमान जी की लंका से विदाई

बोलि सीता बचन सनेहू।
हनुमंत कहेउ मन लहेऊ।।

चलेउ कपि राम पहिं जाई।
मंत्र पुनीत उर धरि लाई।।

पवन तनय बल निधि अगाधा।
राम काज लगि करबि सधाधा।।

जलधि लांघि कपि आयेउ परा।
रामहि देखत हरषि उर भरा।।


🧿 राम से मिलन और कथा

कह कपि सब कथा सविस्तारा।
राम लखन सुनि हर्ष अपारा।।

नयन भरि आये जलु गंगा।
रामु हनुमंतहि लाये अंगा।।

कहेउ राम कपि तू बड़ भागी।
सहित कृपा लीन निस्छल त्यागी।।

दोहा –
कह कपि सबु बृतांत तब राम रसायन ताहि।
बंदे हर्ष उर भरि उठे बोले बचन सुधा जाहि।।


🔥 समुद्र पर सेतु बनाना

रामु कहेउ बिभीषन जाना।
आवन कथा कहेउ हनुमाना।।

सुनि लंका उर मचि उठि ब्यापा।
सैन सहित रामु चलेउ आपा।।

समुद्र सिला कहेउ बिनु प्रीती।
बांधि सेतु नवा नब नीती।।

नल नील यंत्र समागम कीन्हा।
सेतु बंध कपि कुल हरष दीन्हा।।


🛕 राम सेना का समुद्र पार करना

रामु चढे रथ भानु समाना।
लखन लवंगु अरु भट बड़ाना।।

निशिचर बध हेतु प्रभु धाये।
दनुज समूहि त्रास बहु पाये।।

लंका समीप जब रामु आये।
सुनि रावनहि सब भट घबराये।।

सेतु बंध देख सब सकल।
करे कपि नाद दुंदुभि विकल।।


🙏 यहाँ पर सुंदरकांड समाप्त होता है।


यह वही स्थान है जहाँ से युद्धकांड का श्री गणेश होता है।


🌺 सुंदरकांड के अंत में श्रीरामजी स्वयं कहते हैं:

"कपि के कारजु भए सब साजा।
करउं कवन बिधि तोहि उपकारा।।"

🌼 इसका भाव — प्रभु श्रीराम स्वयं भी हनुमान जी की सेवा का कोई प्रतिदान नहीं दे सकते।



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