📖 श्रीरामचरितमानस – बालकाण्ड | भाग 1
✍ जैसे गीता प्रेस गोरखपुर देता है
🪔 श्रीगणेशाय नमः
🪔 श्रीसरस्वत्यै नमः
🪔 श्रीगुरुभ्यो नमः
🔶 दोहा 1
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि॥
भावार्थ:
मैं अपने मन रूपी दर्पण को गुरु के चरण-कमलों की धूल से स्वच्छ कर,
श्रीरघुनाथजी के निर्मल यश का वर्णन करता हूँ, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — इन चारों फल को देने वाला है।
🔶 चौपाई 1
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवनकुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस विकार॥
भावार्थ:
मैं अपने को बुद्धिहीन जानकर पवनपुत्र हनुमान का स्मरण करता हूँ।
हे हनुमानजी! मुझे बल, बुद्धि और विद्या दीजिए और मेरे दुःख-दोषों का नाश कीजिए।
🛑 (यह पंक्ति रामचरितमानस में प्रारंभ में आती है, क्योंकि तुलसीदास जी हर कथा के
पहले हनुमानजी का स्मरण करते हैं। यह हनुमान चालीसा का भाग नहीं है, बल्कि मानस का आरंभिक विनय है।)
🔶 चौपाई 2
जय हनुमन्त सन्त हितकारी। सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥
जन के काज विलम्ब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै॥
भावार्थ:
हे संतों के हितकारी हनुमानजी! मेरी प्रार्थना सुनिए।
भक्त के कार्य में विलम्ब न कीजिए, तुरंत आकर महान सुख दीजिए।
🛑 (यह भी मानस की भूमिका में आती विनयात्मक चौपाई है, कोई बजरंग बाण नहीं है।)
🔶 शुद्ध रामचरितमानस का काव्यात्मक आरंभ अब होता है:
📜 बालकाण्ड प्रारंभ
🟣 श्लोक:
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शंकररूपिणम्॥
भावार्थ:
जो शंकरजी के स्वरूप में बोधमय,
नित्य और गुरुस्वरूप हैं — मैं उन गुरु का वंदन करता हूँ।
🔶 श्लोक
श्रीरामं कमलायताक्षममलं सीतापतिं सुंदरं
पंकजाभं पीतवाससं सुकृतं धर्मं शिवं श्रीकरम्॥
शान्तं शान्तिनिधिं गिरामगम्यं सच्चिदानंदं विभुं
नित्यं ध्याय विभावयामि मनसा वाचामगम्यं विभुम्॥
भावार्थ:
कमल-नेत्र वाले, निर्मल, सुंदर, कमल के समान श्याम वर्ण वाले,
पीताम्बरधारी, पुण्यमय, धर्मस्वरूप, कल्याणकारी, शांत,
सच्चिदानंद स्वरूप, वाणी और मन से अतीत — ऐसे श्रीरामजी का मैं ध्यान करता हूँ।
🔶 दोहा 2
सियाराममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
भावार्थ:
मैं इस समस्त जगत को सीता-राममय
जानकर दोनों हाथ जोड़कर बारंबार प्रणाम करता हूँ।
🔶 दोहा 3
बंदउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
भावार्थ:
मैं सबसे पहले महात्मा संतों के चरणों
की वंदना करता हूँ, जो मोह से उत्पन्न सभी शंकाओं को हर लेते हैं।
🔶 चौपाई
संत सकल गुण गुन अधीना। साधु न चलहिं मोद मद कीना॥
बंदउँ संत असज्जन चरना। सरसिज नमन मन क्रम वचना॥
भावार्थ:
सभी संत गुणों के स्वामी होते हैं। वे घमंड या अहंकार से कभी नहीं चलते।
मैं सज्जनों और दुर्जनों दोनों के चरणों में मन, वचन और कर्म से वंदना करता हूँ — क्योंकि दोनों ही शिक्षादायक हैं।
🔶 दोहा 4
सुभ चरित कपट रहित सम स्नेही। नर कहुँ सपनेहुँ दुख न देही॥
भावार्थ:
संतों का चरित्र सरल, कपट रहित और
समभाव से परिपूर्ण होता है। वे कभी किसी को स्वप्न में भी कष्ट नहीं देते।
🔶 मानस रचना का उद्देश्य
चौपाई
मन क्रम बचन कठिन अनुरागा। राम चरन रति सदा सुहागा॥
तुलसी रचइ राम गुन गाथा। भव रुज रोग बिलोकइ जाथा॥
भावार्थ:
मन, वचन और कर्म से रामजी के चरणों में गहन अनुराग होना सबसे बड़ी संपत्ति है।
तुलसीदास जी कहते हैं — मैं राम के गुणों की गाथा इसलिए रच रहा हूँ ताकि संसार की पीड़ा मिट जाए।
🔶 दोहा 5
राम नाम मनि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ, उजियारै संसार॥
भावार्थ:
तुलसीदास जी कहते हैं — अपने मुखरूपी द्वार पर रामनाम रूपी
रत्नदीप जलाओ। यह दीपक भीतर और बाहर — दोनों ओर संसार को उजियारा देता है।
🔶 चौपाई
सुमिरत नामु होइ भव भंजन। बिनु हरि कृपा न मिलहिं सुंजन॥
राम नाम मनि दीप धरु। तजि तम ग्यानु रूप जिय भरु॥
भावार्थ:
राम नाम का स्मरण करने से ही संसार बंधन का नाश होता है। परंतु हरि कृपा के
बिना यह उत्तम नाम मिलना दुर्लभ है।
इसलिए इस नामरूपी दीपक को अपने हृदय में स्थापित करो और अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाओ।
🔶 दोहा 6
राम नाम गुन गन भंडार। सदा साधु उर आवतार॥
सुमिरि सोइ नामु राम गुन गाथा। पावन पाप नास बिनाथा॥
भावार्थ:
राम का नाम गुणों का भंडार है और सदा संतों के हृदय में निवास करता है।
उसी पवित्र नाम का स्मरण कर रामकथा का गान करो, जिससे पापों का नाश होता है।
🔶 चौपाई
सुनि हरिपद अनुराग बिमल कथा। होइ जन्ममय पुण्य पुरातन॥
तेहि बिनु कहौं कवित्त जड़ जानी। रामनाम बिनु मुख बखानी॥
भावार्थ:
श्रीहरि के चरणों में अनुराग रखने वाले भक्तों की यह कथा सुनने से
पुराने जन्मों के पुण्य फलते हैं। जो राम नाम से रहित है, वह काव्य भी जड़ (मृतवत्) समझो।
🔶 रामचरितमानस नाम क्यों?
दोहा 7
सिय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
रामचरित मानस यह, सादर कहहिं सुनि ध्यानि॥
ध्यान देइ मन मीलि जस, जानी जुगल सनेहि समुझानि॥
भावार्थ:
मैं इस समस्त संसार को सीता-राममय जानकर दोनों हाथ जोड़ प्रणाम करता हूँ।
यह जो रामचरितमानस है, वह रामकथा का पावन सरोवर है —
जो भी इसमें श्रद्धा से डुबकी लगाता है, वह श्रीसीताराम के प्रेमरस से भर जाता है।
🔶 चौपाई
मानस नाम सुअवसर देहीं। राम चरित बरनी बिधि जेहीं॥
सुनतहिं दोष बिनष्ट होई। कहत सुनत मन पावन सोई॥
भावार्थ:
इस ग्रंथ का नाम “मानस” इसलिए है कि यह रामचरित का पवित्र सरोवर है,
जिसमें सुनते ही पाप और दोष समाप्त हो जाते हैं। जो इसे सुनता या कहता है, उसका मन पवित्र हो जाता है।
🔶 नारद जी की कथा की भूमिका
चौपाई
मुनि बिस्वामित्रन्ह पुनि देखे। रघुकुल तिलक कीरति सब लेखे॥
रामकथा मुनि बोले बानी। सादर सबन्ह कहे बखानी॥
भावार्थ:
अब मुनि विश्वामित्र ने (नारदजी से) रघुकुल के तिलक श्री रामजी की
कीर्ति और रामकथा का वर्णन किया, जिसे नारदजी ने सभी को सादर सुनाया।
🔶 नारदजी का तप और प्रभु से वरदान
चौपाई
सुनि हरिकथा मुनि मन लागा। जप तप ध्यान ध्यान अनुरागा॥
जोग ध्यान महुँ लीन हनुमाना। हरषि हृदयँ किएँ गुणगाना॥
भावार्थ:
रामकथा सुनते ही नारदजी का मन प्रभु भक्ति में लग गया। उन्होंने जप,
तप और ध्यान किया। हनुमानजी ध्यान में लीन रहे और प्रभु के गुणों का हर्ष से गान करते रहे।
दोहा
कबहुँक काल हरिकथा सुंदर, सुजसु सुनाइब मोर।
संत मिलत हरि चरित कहत, मिटत कुअँध तम घोर॥
भावार्थ:
कभी ऐसा समय आएगा जब मैं सुंदर हरिकथा और श्रीहरि के
यश का गान करूंगा। संतों के संग श्रीराम की कथा कहने से अज्ञान का अंधकार दूर हो जाएगा।
🔶 प्रभु की लीला आरंभ – नारद जी को मोह में डालना
चौपाई
प्रभु इच्छा बलवान मुनि देखा। बिस्मय मगन भयो मति लेखा॥
सुरपुर बसत जाति नरनारी। कृपानिधि सुभ कारनकारी॥
भावार्थ:
प्रभु की इच्छा बलवान होती है, यह नारदजी ने देखा।
वे चकित होकर उस मोह में पड़ गए, जो कृपा से उपजा था और भक्तों के हित के लिए था।
चौपाई
एक नगर सुरपुर सम सोहा। बसत जाहँ मुनि सुकृतिन कोहा॥
रूप सैल रानि सुता रानी। तनु लखि नारद भए अकुलानी॥
भावार्थ:
नारदजी एक ऐसे नगर में पहुँचे, जो स्वर्ग जैसा दीप्तिमान था।
वहाँ एक राजकुमारी अपने रूप की अपूर्व शोभा से सुशोभित थी, जिसे देखकर नारदजी चकित हो गए।
🔶 नारदजी का मोह और प्रभु से प्रार्थना
दोहा
गए नारद मुनि सोंचि मन, बिनु प्रभु मते न जाइ।
जाइ हरिहिं बिनती करहिं, प्रभु बिनु किए भलाई॥
भावार्थ:
नारदजी मन में सोचने लगे कि बिना श्रीहरि की अनुमति के वहाँ जाना उचित नहीं।
अतः वे प्रभु के पास गए और प्रार्थना करने लगे कि आप मेरे लिए कुछ भलाई कीजिए।
चौपाई
सुनि मुनिबचन बिनीत सुहाए। जानि सप्रेम हरषि मुसकाए॥
प्रभु बोले मन अनुसारा। होइ सोइ जो करतार कृपाकारा॥
भावार्थ:
प्रभु ने नारदजी की विनम्र वाणी सुनी और प्रेम सहित मुस्कुराए।
वे बोले — हे मुनि! जैसा तुम्हारा मन है, वैसा ही होगा। जो कुछ होता है, वह करुणा से होता है।
🔶 नारद जी के मन में मोह और प्रभु की लीला
चौपाई
नारद गयउ नगर सो भावा।
सोभा सुतहि देखि मन भावा॥
परम रूप धरि मुनि भुलाना।
तजि विवेक बड़ाई माना॥
भावार्थ:
नारदजी उस नगर को अत्यंत सुंदर जानकर वहाँ गए। राजकुमारी को देखकर
उनका मन उस पर आसक्त हो गया। प्रभु की माया से मोहित होकर उन्होंने विवेक त्याग दिया और स्वयं को श्रेष्ठ समझने लगे।
दोहा
गए नारद मुनि सोंचि मन, बिनु प्रभु मते न जाइ।
जाइ हरिहिं बिनती करहिं, प्रभु बिनु किए भलाई॥
भावार्थ:
नारदजी मन में विचार करने लगे कि बिना प्रभु की अनुमति के जाना उचित नहीं।
अतः वे भगवान के पास गए और उनसे प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु! मेरे हित में जैसा उचित हो वैसा कीजिए।
🔶 प्रभु की मुस्कान और माया का खेल
चौपाई
सुनि मुनिबचन बिनीत सुहाए।
जानि सप्रेम हरषि मुसकाए॥
प्रभु बोले मन अनुसारा।
होइ सोइ जो करतार कृपाकारा॥
भावार्थ:
नारदजी की विनीत बातों को सुनकर प्रभु प्रेम से मुस्कुराए। वे बोले —
हे मुनि! जैसा तुम्हारा मन है वैसा ही होगा। क्योंकि सब कुछ मैं करता हूँ — अपनी करुणा से।
चौपाई
मुनिहि दीन्ह कपि तनु सुहावा।
सो पहिराइउ हरि रस छावा॥
बिमल बेष भूषन मुनि आना।
गयउ नगर हरषि मनु माना॥
भावार्थ:
भगवान ने मुनि को वानर का शरीर दिया, परंतु मोहवश वह उन्हें ज्ञात नहीं हुआ।
उन्होंने सुंदर वस्त्र और गहने पहनाए और नारदजी प्रसन्न होकर नगर की ओर चल पड़े।
🔶 स्वयंवर में अपमान
चौपाई
नृपहि सुतहि चकित कर देखी।
मुनि गवनु सोभा सम लेखी॥
जयमाल देखि मुनि मन माना।
मिलिहि न मोहि सोइ बरु नाना॥
भावार्थ:
राजा और राजकुमारी ने जब नारदजी का वानर रूप देखा तो चकित हो गए।
लेकिन मुनि को अपने रूप पर इतना गर्व था कि उन्होंने सोचा — यही राजकुमारी मुझे वरण करेगी।
दोहा
रानि कीन्हि हरि रूप लखि, जयमाल सौं ग्यान।
मुनि मन मोह न मिटै, देहि कृपा भगवंत॥
भावार्थ:
राजकुमारी ने भगवान का रूप देखकर उन्हें वरण कर लिया।
मुनि का मोह तब भी न गया — उन्होंने प्रभु से कृपा करके अपनी वास्तविक स्थिति दिखाने की प्रार्थना की।
🔶 मोहभंग और क्रोध में शाप
चौपाई
भए मुनि क्रोध मगन मन भारी।
देखेउ निज मुख देखि निहारी॥
देखि आपु सो वानर जस पीसा।
उपजा हृदयँ संताप कलीसा॥
भावार्थ:
जब नारदजी ने अपने मुख की छवि देखी तो उन्हें वानर
जैसा मुख दिखाई दिया। यह देखकर वे क्रोध में भर उठे और उन्हें गहरा संताप हुआ।
चौपाई
मूढ़ मन मोह बस भयऊ।
गुरु आज्ञा बिसराय भयऊ॥
क्रोध करहिं हरि सन बड़ बानी।
नाथ मोहिं कीन्हेसि सयानी॥
भावार्थ:
मोहवश नारदजी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई। वे अपने गुरु की आज्ञा भूल गए
और प्रभु पर क्रोधित होकर कठोर वचन कहने लगे — हे प्रभु! आपने मुझे ठग लिया।
🔶 शाप: मनुष्य अवतार लो और स्त्री वियोग सहो
चौपाई
मानुष होहु चलहु भूधारी।
नर नारि बियोग सहहिं दुख भारी॥
अस कहि मुनि चले तप करने।
कृपा सिंधु मुसकानि सनेहने॥
भावार्थ:
नारदजी ने प्रभु को शाप दिया — “अब तुम मनुष्य रूप में धरती पर जन्म लो
और स्त्री-वियोग का भारी दुःख सहो।” यह कहकर वे तप करने चले गए। प्रभु मुस्कुरा कर करुणा से देखते रहे।
🔶 शिवजी की पार्वती से बातचीत
दोहा
शंभु बाम अंग पालित सिय, कहि कथा निज जीव।
सती सहित गिरिजा तहाँ, बैठीं कृपानिधि पीव॥
भावार्थ:
शिवजी, जो कृपानिधि हैं, अपने बाएं अंग से उत्पन्न सती
(अब पार्वती) के साथ विराजमान हैं और श्रीराम की लीलाओं का अमृतमय पान कर रहे हैं।
🔶 पार्वती जी का प्रश्न
चौपाई
सुनि हरि कथा हृदय अति भावा।
उर अनुमोदन शंकर लावा॥
बोली गिरिजा बचन सुखदाई।
हरि चरित सुनिबे की चाहि भलाई॥
भावार्थ:
हरिकथा सुनकर पार्वती के हृदय में अपार आनंद हुआ। शिवजी ने भी हृदय से उस
कथा का अनुमोदन किया। तब पार्वती जी ने सुखदायक वाणी में पूछा — हे प्रभो! क्या हरिकथा सुनना ही सबसे श्रेष्ठ साधन है?
🔶 शिवजी श्रीराम की महिमा बताते हैं
चौपाई
बोले गौरीपति मन हरषा।
सुनु भवानी राम करि दशा॥
जासु नाम जपि सुनि नर होई।
हरि पद पंकज प्रेमु न सोई॥
भावार्थ:
शिवजी बोले — हे भवानी! श्रीराम का नाम ही ऐसा है, जिसका जप और
श्रवण करने से मनुष्य श्रीहरि के चरणों में प्रेम पाता है। उनके चरित्र की महिमा अनंत है।
दोहा
राम नाम बड़ नामि बड़, तें बड़ राम न होइ।
नामु कुपथ निसारणु, नामु भजन करि सोइ॥
भावार्थ:
राम से भी बड़ा राम का नाम है। नाम ही सारे पापों और
विकारों को हरने वाला है। जो रामनाम का भजन करता है, वही सच्चा साधक है।
🔶 शिवजी द्वारा रामावतार की घोषणा
चौपाई
अब प्रभु करिहिं मानुष लीला।
जस हौं कहीं पुरातन कीला॥
सुनतहिं पारबती उर आसा।
सचिव सहित सुर करहिं प्रनासा॥
भावार्थ:
अब प्रभु श्रीहरि मानव रूप में लीला करेंगे — जैसा मैंने पहले बताया था।
यह सुनते ही पार्वतीजी के हृदय में आशा जगी, और सभी देवताओं ने हर्ष से श्रीराम की वंदना की।
चौपाई
कैकै हेतु होइहि कलिकाला।
राजा होइ दशरथ करि बाला॥
राम नामु तजि जो सुकृती।
सो नर कहिअ न हय रिपु मृती॥
भावार्थ:
प्रभु की योजना से त्रेता युग में दशरथ राजा होंगे और उनके घर में श्रीराम
बालरूप में जन्म लेंगे। जो लोग उस समय भी रामनाम नहीं जपेंगे, वे स्वयं अपने दुर्भाग्य के कारण ही दुःख पाएँगे।
🔶 शिव–पार्वती संवाद का सार
दोहा
करउँ कथा जस भाव तहँ, सिव उर धरि विश्वास।
रामकथा मुनि गावही, सुनै प्रेम रस प्यास॥
भावार्थ:
शिवजी ने कहा — मैं तुम्हें वही कथा कहूँगा जो मेरे हृदय में प्रेम
और विश्वास के साथ बसती है। मुनि लोग भी रामकथा को प्रेमरस की प्यास से गाते हैं और सुनते हैं।
🔶 पृथ्वी पर अधर्म का बढ़ना
चौपाई
भूतल भयउ धर्म कर नासा।
बढ़े अधम धन धाम निरासा॥
साधु सृजन हित लागि न माया।
ते सरबस भए मोह बस छाया॥
भावार्थ:
पृथ्वी पर धर्म नष्ट होने लगा, अधर्मी लोग धन-वैभव में डूबकर भगवान को भूल गए।
माया का उपयोग जो भक्तों के हित के लिए होना था, वही अब मोह में पड़कर विनाशकारी हो गया।
चौपाई
हरण नीति सब भए कुनीति।
भ्रात सत्रु सम पति बैरी प्रीति॥
नारी धरम रति गवने गगनाई।
संकर साहब सुरपति न पाई॥
भावार्थ:
नीति का नाश हो गया, कुनीति का प्रचलन हो गया। भाई–भाई के शत्रु बन गए,
पति–पत्नी के बीच प्रेम न रहा। स्त्रियाँ धर्म और
शील से दूर हो गईं। शिवजी और इन्द्र जैसे देवताओं को भी सम्मान नहीं मिल रहा था।
🔶 देवताओं की ब्रह्मा से प्रार्थना
चौपाई
तब सुर सब गयउ ब्रह्मा पासा।
बंदि प्रीति नाथ करि ह्रदासा॥
कहहु नाथ अब का उपाई।
भूतल भयउ अधर्म सँगाई॥
भावार्थ:
तब सारे देवता ब्रह्माजी के पास गए। उन्होंने हाथ जोड़कर कहा —
हे नाथ! अब क्या उपाय किया जाए? पृथ्वी पर अधर्म की सीमा पार हो गई है।
चौपाई
सुनि बिधि बचन बिरंचि भाखा।
जिन्ह सृजन कीन्हें सुर असुर राखा॥
प्रगटु करहु कृपा सागर देवा।
भूतल प्रजा बचावहु सेवा॥
भावार्थ:
ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए कहा — हे कृपा के सागर!
आपने ही देवता–दानवों की सृष्टि की है। अब पृथ्वी पर प्रजा को बचाने के लिए आप प्रकट हों।
🔶 भगवान विष्णु का उत्तर: राम के रूप में अवतार
दोहा
सुनी बिनती ब्रह्मादि तब, करुणा निधान कृपाल।
सीय राम रूप धरि प्रभु, आवहिं अवध निहाल॥
भावार्थ:
ब्रह्मा आदि की विनती सुनकर करुणा के सागर प्रभु कृपालु हो गए। उन्होंने श्रीराम
और सीता के रूप में अवतरण का संकल्प लिया और अयोध्या में प्रकट होने का निश्चय किया।
🔶 भगवान विष्णु की आज्ञा: देवता भी सहायक बनें
चौपाई
सुर तनु धरि गयउ सकल भूपा।
हर्ष बिमल नभ बाजहिं तूफा॥
सकल सुरन्ह करि भाँति बखाना।
हरषि चले बिबुध मनु मना॥
भावार्थ:
प्रभु की आज्ञा के अनुसार सभी देवताओं ने विभिन्न स्वरूपों में पृथ्वी पर
जन्म लेने का निश्चय किया। सभी के मन में हर्ष छा गया, आकाश में मंगल ध्वनि गूँज उठी।
🔶 अयोध्या नगरी का वर्णन
चौपाई
सोउ अवधपुरी अति रम्य सी, रघुकुल तिलक निवास।
नव रत्न ज्यों सजी श्रुति कह, सकल सिद्धि सुख रास॥
भावार्थ:
वह अयोध्या नगरी अत्यंत रमणीय थी, जहाँ रघुकुल के तिलक श्रीराम
का निवास होना था। वेदों में उसकी तुलना नव रत्नों से की गई है और वह सभी सिद्धियों व सुखों की खान थी।
चौपाई
सब सिद्धि सब सुंदरता सोई।
जनु साक्षात ब्रह्मपुर होई॥
भूप भरत महुँ रूप निधाना।
पिता समरथ नीति निपुना॥
भावार्थ:
अयोध्या में सभी सिद्धियाँ, सभी शोभा थी। ऐसा लगता था मानो वह स्वयं ब्रह्मलोक ही हो।
राजा दशरथ रूप, बल, नीति और शक्ति के भंडार थे। वे धर्म और मर्यादा के सच्चे प्रतीक थे।
🔶 राजा दशरथ की चिंता: संतान नहीं है
दोहा
गईं बीति बहु बरस भए, आयसु जवन न आय।
नहिं सुत मोह महँ सोच हर, नाथ सभहि सुनाय॥
भावार्थ:
राजा दशरथ की अवस्था अधिक हो चुकी थी, परंतु उन्हें कोई संतान नहीं थी।
यह बात उन्हें सोच में डालती थी। उन्होंने यह चिंता अपनी सभा में भी व्यक्त की।
चौपाई
भूप बिप्र मुनिन्ह सँग गोसाई।
करि बिचार कहेउ मन भाऊ॥
बिप्र बोले सुनु राजन, सुत होइहैं तोहि तब जौ करहु यज्ञ काज॥
भावार्थ:
राजा दशरथ ने ब्राह्मणों और मुनियों से परामर्श किया। उन्होंने सलाह दी —
हे राजन! यदि आप संतान चाहते हैं तो ‘पुत्रेष्टि यज्ञ’ कराइए, तभी आपको योग्य संतान प्राप्त होगी।
🔶 पुत्रेष्टि यज्ञ की तैयारी
चौपाई
करि बिचार मुनिन्ह सब कहीना।
एहि समय सुत होइ नहिं कीना॥
यज्ञ करन हित मुनिन्ह बोलाए।
सकल विधि साजि सभा सजाए॥
भावार्थ:
मुनियों ने कहा — यह संतान प्राप्ति का श्रेष्ठ समय है।
राजा दशरथ ने तुरंत ऋषियों को बुलाया और यज्ञ की संपूर्ण तैयारी शुरू की गई।
दोहा
सहित सकल रघुकुल सखा, मंत्रिन्ह सहित समाज।
मुनि वशिष्ठ सब आग्रही, कीन्ह पुत्र यज्ञ काज॥
भावार्थ:
संपूर्ण रघुकुल, मंत्री, सभासद और मुनि वशिष्ठ के निर्देशन में पुत्रेष्टि यज्ञ आरंभ हुआ।
🔶 यज्ञ के फलस्वरूप अग्निदेव प्रकट होते हैं
चौपाई
यज्ञ करत भइ आयसु पूरी।
भूप समेत सकल महतारी॥
स्नान करै तब अग्नि उपासा।
आगें आएउ सुन्दर दासा॥
भावार्थ:
जब यज्ञ पूर्ण हुआ, राजा दशरथ अपनी रानियों
सहित स्नान करने चले। तभी अग्निदेव एक दिव्य रूप धारण कर सामने प्रकट हुए।
चौपाई
माथे तिलक, उर माल सुहाई।
कनक पात्र कर चारिउ भाई॥
पायस सकल सुगंध सुधासम।
प्रीति सहित दीन्हेउ नृप रामसम॥
भावार्थ:
अग्निदेव ने मस्तक पर तिलक, वक्षस्थल पर दिव्य माला और हाथ में
सोने का पात्र लिए हुए थे। उन्होंने वह दिव्य खीर (पायस) राजा दशरथ को दिया, जो अमृत के समान था।
🔶 प्रसाद का वितरण तीनों रानियों में
दोहा
प्रेम समेत रघुपति धर, पायस मधुर सुगंध।
दिया तीन महिषिन्ह कहुँ, सुर मुनि गावहिं संबंध॥
भावार्थ:
राजा दशरथ ने अत्यंत प्रेम से वह दिव्य खीर ली और उसे अपनी तीनों रानियों —
कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी में बाँट दिया। देवता और मुनि श्रीराम की जय-जयकार करने लगे।
चौपाई
आधे भाग कौसल्या पाई।
आधे सुमित्रा लीनि सहाई॥
दिया कैकेई कुंडल सोभा।
पुनि पुनि देखि करत प्रभु लोभा॥
भावार्थ:
राजा दशरथ ने आधा भाग कौसल्या को दिया, और आधे में से आधा भाग
सुमित्रा को। फिर शेष कैकेयी को दिया। थोड़ी खीर और बची तो वह फिर से सुमित्रा को दी।
📌 ध्यान दें:
👉 यही कारण है कि सुमित्रा के गर्भ से लक्ष्मण और शत्रुघ्न — दो पुत्र हुए,
जबकि कौसल्या से श्रीराम और कैकेयी से भरत का जन्म हुआ।
🔶 श्रीराम जन्म का समय
चौपाई
नवमी तिथि मधुमास पुनीता।
सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यम दिवस अतीत तम छाया।
सर्वस मंगल मंगलदाया॥
भावार्थ:
चैत्र मास की शुभ नवमी तिथि थी, शुक्ल पक्ष का समय, जो अभिजित
मुहूर्त और भगवान विष्णु को प्रिय है। दिन का मध्य भाग था, अंधकार नष्ट हो चुका था, चारों ओर शुभता ही शुभता थी।
🔶 श्रीराम का जन्म
चौपाई
देस काल चरित भल पावन।
लगन सकल सुमंगल सावन॥
जन्में राम अचल अनुरागा।
प्रगटे भगत सुकृत कर भागा॥
भावार्थ:
देश, काल और वातावरण अत्यंत पवित्र और शुभ था।
चारों ओर मंगलमय वातावरण था। ऐसे में श्रीराम जन्मे —
यह भक्तों के पुण्य का उदय और ईश्वर की कृपा का अवतरण था।
दोहा
भए प्रगट कृपाला, दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी, मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
भावार्थ:
दीनों पर कृपा करने वाले, कौसल्या के हितकारी श्रीराम प्रकट हुए।
कौसल्या जी हर्षित हो उठीं, मुनियों के मन को मोह लेने वाला उनका रूप अद्भुत था।
🔶 श्रीराम का दिव्य रूप
चौपाई
लोचन अभिराम तनु घनश्याम।
नव कंज लोचन कर कमल छाम॥
श्रीवत्स वक्ष कौस्तुभ माला।
कंठ मणि मुकुट केतन माला॥
भावार्थ:
श्रीराम का शरीर घनश्याम था, नेत्र नवीन कमलों के समान सुंदर,
हाथ कमल की तरह थे। वक्ष पर श्रीवत्स और कौस्तुभ मणि थी, कंठ में हार, सिर पर मुकुट और दिव्य तेज था।
🔶 देवताओं और मुनियों का हर्ष
चौपाई
ब्रह्मा शिव सनकादिक आए।
सेषादिक सुर नारद गाए॥
गावत ब्रह्मा आदि पुराना।
जय रघुनंदन गूंजत बाना॥
भावार्थ:
ब्रह्मा, शिव, सनक, शेष, नारद आदि सभी देवता और
मुनि वहाँ आए। सबने रघुनंदन की जय-जयकार गाई और आकाश गूंजने लगा।
🔶 अयोध्या में आनंद उत्सव
दोहा
सकल नगर आनंद भयो, बाजत निज गिरी नाद।
दास दशरथ हर्षि घर, ले गए राम लवाय॥
भावार्थ:
संपूर्ण अयोध्या नगरी में आनंद छा गया,
घर-घर बाजे बजने लगे। राजा दशरथ श्रीराम को लेकर घर गए, हर्ष और उल्लास से भर उठे।
🔶 श्री राम को देखकर कौसल्या भावविभोर हो जाती हैं
चौपाई
देखि रूप मुनि मन हरता।
सुतहि गोद लइ भूप सिहरता॥
कौसल्या हर्ष विस्मय छाया।
मुख कमल लोचन जल भरि आया॥
भावार्थ:
श्रीरामजी का रूप देखकर मुनियों का मन मोहित हो गया।
राजा दशरथ ने पुत्र को गोद में लिया, तो वे पुलकित हो उठे।
कौसल्या जी हर्ष, विस्मय और प्रेम से भर गईं, उनके नेत्रों में अश्रु आ गए।
🔶 माता कौसल्या द्वारा स्तुति
दोहा
निज आयुध भूसन बर, बदन चारु चतुर्भुज।
सुर मुनि मन मोहक सुरूप, देखउँ प्रभु नयन सज॥
भावार्थ:
हे प्रभो! मैं आपके रूप को चार भुजाओं वाले, दिव्य आभूषणों से युक्त और
देवताओं के मन को भी मोह लेने वाला देख रही हूँ। मेरे नेत्र इस रूप को निहारने में तृप्त नहीं हो रहे।
चौपाई
कहत दीनतन हितकारी।
मातु पुनि पुनि चितवत प्यारी॥
सचिव बोलाए गुर द्विज आए।
बिप्र बृंद नृप पूजनु कराए॥
भावार्थ:
माता कौसल्या बारंबार कह रही थीं — "हे दीनों के हितकारी!" और
श्रीराम को देखती ही जा रही थीं। फिर राजा ने मंत्रियों और
गुरु वशिष्ठ को बुलवाया और ब्राह्मणों का विधिपूर्वक पूजन कराया।
🔶 सभी देवता, मुनि और ब्रह्मा-शिव का आगमन
चौपाई
देव दारुन दुखु धरि देही।
बंदि राम पद भेंटि सनेही॥
ब्रह्मा शिव सनकादि बिचारा।
आए राम दरस बिचारा॥
भावार्थ:
देवता जिन्होंने दुःख से पीड़ित होकर श्रीराम को पुकारा था, वे
अब विविध रूपों में आकर श्रीरामजी के दर्शन करने लगे।
ब्रह्मा, शिव, सनक, मुनिगण आदि सब दर्शन के लिए आए।
🔶 नगर में उत्सव
दोहा
भए नगर लोग सुख साने, गावत राम जस दिन रैना।
निज निज भवन सुहावन कीन्हे, मुदित मन बोलत बचन बिनयना॥
भावार्थ:
नगर में दिन-रात रामजी का यश गाया जा रहा था।
हर घर में सुंदर सजावट थी और सभी के मन आनंद से भर गए थे।